गांव में अब भी प्रधान पति और सरपंच पति जैसे शब्द सुनने को मिलते हैं। इस प्रथा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की गई। इसके बाद केंद्र सरकार ने सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी सुशील कुमार की अध्यक्षता में 10 सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन किया। यह गठन महिला प्रधानों की व्यावहारिक समस्याओं का अध्ययन कर रही है।
नई दिल्ली। देशभर की ढाई लाख पंचायतों में निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों की भागीदारी 44 प्रतिशत है। यह आंकड़ा तेजी से हो रहे महिला सशक्तीकरण की कहानी सुनाता है, लेकिन आजादी के इतने वर्षों बाद भी गूंज रहे ‘सरपंच पति और प्रधान पति’ जैसे शब्द इससे खलल डाल रहे हैं। इस कुप्रथा के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर होने के बाद जिस तरह से केंद्र सरकार ने सुधार की ओर प्रयास तेज किए हैं, उससे आशा कर सकते हैं कि भविष्य में यह प्रथा खत्म हो जाए।
18 राज्यों में किया गया अध्ययन
पंचायतीराज मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति ने 18 राज्यों में महिला प्रधानों की व्यावहारिक समस्याओं का अध्ययन कर कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। अंतिम रिपोर्ट बनने के बाद इसके लिए सरकार ठोस कदम उठाने की तैयारी में है। समाजसेवियों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में पिछले वर्ष सरपंच पति प्रथा को लेकर जनहित याचिका दायर की थी।
केंद्र ने बनाई थी 10 सदस्यीय समिति
जुलाई, 2023 में कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश पर याचिकाकर्ताओं ने पंचायतीराज मंत्रालय को अपना प्रस्तुतीकरण दिया, जिसके बाद मंत्रालय ने सितंबर, 2023 में सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी सुशील कुमार की अध्यक्षता में दस सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन इस व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन कर सुझाव देने को कहा।
क्यों लेनी पड़ती है पति की ओट?
मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि कमेटी में शामिल विशेषज्ञों ने 18 राज्यों में पंचायतीराज संस्थाओं की निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों की व्यावहारिक समस्याओं पर अध्ययन किया कि आखिर उन्हें प्रतिनिधि के रूप में अपने पति की ओट क्यों लेनी पड़ती है। अभी समिति ने अंतिम रिपोर्ट नहीं दी है, लेकिन अपने अध्ययन के कुछ प्रमुख बिंदु मंत्रालय से जरूर साझा किए हैं।
महिला प्रधानों ने क्या बताया?
समिति ने राजसमंद की एक महिला प्रधान के अनुभवों के आधार पर कहा है कि सिर्फ पांच वर्ष के कार्यकाल के लिए कोई महिला सरपंच सामाजिक और सामुदायिक मान्यताओं को तोड़ना नहीं चाहती। छत्तीसगढ़ और बिहार की महिला सरपंचों से फीडबैक मिला है कि पितृसत्ता, परिवार और जाति संबंधी पूर्वाग्रहों के सामना करते हुए सरपंच के रूप में कामकाज संभालना आसान नहीं है।
अभी क्षमतावान बनाने की आवश्यकता
वहीं, सभी राज्यों से जो समान कारण मिला, वह यह कि प्रभावी ढंग से कामकाज करने के लिए महिला जनप्रतिनिधियों को अभी और अधिक क्षमतावान बनाने की बहुत आवश्यकता है। इस अध्ययन के आधार पर समिति ने जो सुझाव दिए हैं, उनमें प्रमुखता से कहा है कि निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों के शासन और प्रबंधन संबंधी कौशल और क्षमता विकास के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पहल करनी होगी।
सोच में बदलाव लाने की जरूरत
शिक्षा व्यवस्था और सोच में आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। स्कूल ऑफ प्रेक्टिस बनाकर सफल महिला जनप्रतिनिधियों से प्रशिक्षण दिलाया जाए।
प्रमुख सुझाव
सरपंच पति प्रथा खत्म करने के उद्देश्य से राज्यों के लिए आदर्श कानून का प्रारूप बनाया जाए। क्या राज्य महिलाओं के लिए पंचायत सचिव पद पर 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था लागू कर सकते हैं? मैन्युअल उन सभी भाषाओं में बनाने की व्यवस्था होनी चाहिए, जिसे अशिक्षित महिलाएं भी समझ सकें।
भ्रष्टाचार भी एक बड़ी चुनौती
बिहार और राजस्थान में अध्ययन करते हुए समिति ने पाया है कि महिला सरपंच कई चुनौतियां महसूस करती हैं, उनमें भ्रष्टाचार भी एक प्रमुख है। दरअसल, उन्हें कई चेक पर हस्ताक्षर करने होते हैं, निविदाएं स्वीकृत करनी होती हैं, तब उन्हें अनजाने में भी हुई गलती के कारण जेल जाने का डर सताता है। ऐसे में वह अपने पति पर ही भरोसा करते हुए उन पर निर्भर रहने में सुरक्षित महसूस करती हैं।